Sunday, December 21, 2014

नारियल से सख्त और मीठे जस्टिस त्रिपाठी

अधिकतर हिंदी फिल्मों में जज की भूमिका, अगर वह नायक न हो तो, बहुत ही संक्षिप्त होती है, जो अदालत की कार्रवाई शुरू होने से लेकर फैसला दिए जाने के बीच ही सिमटकर रह जाती है.

लेकिन, पिछले साल आई जॉली एलएलबी के जस्टिस त्रिपाठी के अंदाज एकदम अलग ही नजर आते हैं. जस्टिस त्रिपाठी एकदम नारियल जैसे हैं, बाहर से सख्त और खुरदुरे, लेकिन भीतर से जज्बातों की मिठास से भरपूर.

यह एक ऐसा किरदार है, जो हर बीतते दिन एक नई ऊंचाई पाता चला जाता है. पहले दृश्य में युवा वकील जगदीश त्यागी की जनहित याचिका की गलतियों पर उसे फटकार लगाते और होमवर्क करके आने की सलाह देने वाले जस्टिस त्रिपाठी को जब हम दबंग और सेलिब्रिटी वकील राजपाल से उसके भाई की हाउसिंग स्कीम में फ्लैट के बारे में चर्चा करते देखते हैं तो स्वाभाविक ही उनके बारे में यह राय बन जाती है कि राजपाल के रसूख का असर उनके फैसले पर न पड़े, हो ही नहीं सकता. लेकिन, जब वे त्यागी की याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर लेते हैं, तो यह राय कुछ कमजोर पड़ने लगती है.
जस्टिस त्रिपाठी, सिर्फ एक जज की ही नहीं, बल्कि एक हितचिंतक बुजुर्ग की भूमिका भी अच्छे से निभाना जानते हैं. एक दृश्य में वह अदालत में दोनों वकीलों के अमर्यादित होने के बाद उन्हें लंच के दौरान बुलाकर समझाते हैं कि उन्हें इससे बचना चाहिए. और जब लालच में रास्ते से भटक गया त्यागी सच्चाई के लिए लड़ने का दम भरता है तो जस्टिस त्रिपाठी उसकी पोलपट्टी खोल देते हैं और कहते हैं कि कानून अंधा होता है, जज नहीं. कानून का रखवाला होने के नाते जज को उससे बड़ा मानने की उनकी यह भावना एक और दृश्य में तब सामने आती है, जब अदालत में उनके आने के बाद वकीलों के बैठे रहने पर वे कटाक्ष करते हैं कि आप लोग भी खड़े हो जाइए, कानून की इज्जत नहीं करते तो जज की तो इज्जत कीजिए.

एक जज होने के नाते जस्टिस त्रिपाठी द्वारा अपने अधिकार का उपयोग करने पर जब राजपाल द्वारा सवाल उठाया जाता है तो उसके सारे रसूख की परवाह किए बिना वह कह देते हैं कि यह राजपाल का बाररूम नहीं, बल्कि उनकी अदालत है, जहाँ कुछ भी करने का अधिकार सिर्फ उन्हें ही है. तेजपाल फिर भी नहीं मानता, तो भड़के जस्टिस त्रिपाठी उसे इतनी खरी-खोटी सुनाते हैं कि वह हक्का-बक्का रह जाता है...और दर्शक भी, जिन्हें लग रहा था कि एक फ्लैट या बंगले का लालच, जस्टिस त्रिपाठी को राजपाल के सामने कमजोर कर देगा.

जस्टिस त्रिपाठी जज होने के अधिकार को भी जानते हैं, और सीमाओं को भी. सीमाएं, जो उन्हें पहले दिन से ही सच जानने के बावजूद भी तथ्यों और साक्ष्यों की बिना पर ही फैसला देने के लिए विवश करती हैं. अंतिम दृश्य में उनकी यह पीड़ा फूट पड़ती है कि उनका जानना कोई मायने नहीं रखता, उन्हें तो वही बोलना है जो साक्ष्य कहते हैं. और फिर वे अपनी सीमाएं तोड़ डालते हैं और कहते हैं कि आज तक जज के तारीख दर तारीख सबूतों का इंतजार करते रहने की जो परंपरा है, वह अब नहीं होगी और मुजरिम राहुल दीवान जेल जाएगा. सबूतों की बैसाखी के सहारे चलने वाली सीमाएं तोड़ने का जस्टिस त्रिपाठी का यह फैसला उन्हें एकाएक बहुत ऊंचा उठा देता है.

जस्टिस त्रिपाठी के इस दिलचस्प किरदार को सौरभ शुक्ला ने इस शानदार ढंग से निभाया है कि लगता ही नहीं कि कोई और कलाकार इससे बेहतर निभा सकता था. प्रसंगवश, इस भूमिका के लिए सौरभ शुक्ला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है, न मिलता तो इस जज के साथ  यह एक तरह की नाइंसाफी ही होती.

संदीप अग्रवाल

Sunday, December 14, 2014

अपने ही अहं का शिकार


अहं या ईगो, एक ऐसी नामाकूल शय है, जो किसी भी खूबसूरत रिश्ते को तबाह कर देती है. हृषिकेष मुखर्जी की अभिमान यही संदेश देती है, जिसका नायक सुबीर अपनी असफलता को स्वीकार करने में हेठी महसूस करने वाले पुरुष अहं का एक ऐसा प्रतीक है, जो करीब साढ़े तीन दशकों बाद भी अपनी प्रासंगिकता को बरकरार रखे हुए है.
अपने अकेलेपन को महसूस करने के बावजूद इसे स्वीकार न करने वाला सुबीर एक मशहूर गायक है, जिसकी आवाज की दीवानी दुनिया है, लेेकिन खुद उसे तलाश है एक मन के मीत की, जिसके लिए वह हर जतन करने के लिए तैयार है.

एक दिन, इत्तेफाक उसे अपनी धाय मां के गांव ले आता है, जहां उसे अपने मन का मीत उमा के रूप में मिलता है. गांव की सादगी और संजीदगी की प्रतिमूर्ति उमा उसी की तरह संगीत को अपने मन-प्राण में बसाए हुए है. सुबीर के गानों की कद्रदान है तो वह है ही, साथ ही खुद भी गाने की शौकीन है. सुबीर और उमा का परिचय, कब प्रणय के रास्ते परिणय तक पहुंच जाता है, पता ही नहीं चलता.

दोनों एक साथ रहने लगते हैं. उमा की मधुर आवाजा सुबीर के क्लाइंट्स के कानों तक पहुंचती है तो वे पहले उसे सुबीर के साथ गाने के लिए मनाते हैं और फिर धीरे-धीरे अकेले गाने के लिए भी राजी कर लेते हैं. एक वक्त ऐसा आता है, जब सुबीर की मांग खत्म हो जाती है, लेकिन उमा को अनुबंधित करने वालों का तांता लगा रहता है. सुबीर कुंठित होने लगता है और धीरे-धीरे हम उसे एक प्रेमी से एक प्रतिद्वंद्वी में बदलते हुए देखते हैं.

नहीं, यह वह सुबीर नहीं है, जिसने कुछ अर्सा पहले अपने घर की बगिया में मिलन के गुल खिलाने के ख्वाब देखे थे. यह एक ईर्ष्यालु, अभिमानी और बद्मिजाज सुबीर है, जो अपनी असफलता को पचा नहीं पा रहा है. उसकी कुंठा उसे अपनी पत्नी, अपने दोस्तों और एक-एक कर सभी अपनों से दूर कर देती है और वह एकदम अकेला रह जाता है.
वह इस अकेलेपन को महसूस तो करता है, लेकिन अपने अहं के चलते, इसे स्वीकार नहीं करता. जीवन धीरे-धीरे अपनी गति से चलता रहता है और अकेलेपन का बोझ बढ़ता जाता है. 

यहां से हम तीसरे सुबीर को देखते हैं. एक अकेला-टूटा हुआ, पछतावो की आग में जलता हुआ सुबीर. लेकिन उसका अहं, अभी भी उसे झुकने, पहल करने से रोकता है. इसी बीच एक दुर्घटना में, उसके आंगन में खिलने वाला गुल, मुरझाकर गिर जाता है. सुबीर के पश्चाताप की अग्नि में उसका सारा अहंकार जलकर नष्ट हो जाता है और वह उमा को अपनी जिंदगी में वापस ले आता है.

सुबीर का किरदार, एक आम भारतीय पति की मानसिकता और पूरी तरह प्रतिध्वनित करता है. वहीं उसका अपनी गलती महसूस करना, उसे सुधारने की कोशिश करना उसे एक अच्छे इंसान के तौर पर भी पेश करता है. वह अडि़यल है तो अड़ा ही रहता है लेकिन जब बदलता है तो बदलता भी पूरी शिद्दत से है. इस बहुमुखी किरदार को अमिताभ ने अपने अभिनय से एक अनूठा आकर्षण और वजन दिया है, जो सिर्फ वही कर सकते हैं.

संदीप अग्रवाल

Monday, December 8, 2014

क्या सत्यकाम संभव है?

अक्सर हम ऐसे किरदारों से दो चार होते हैं, जो हमें अपने आसपास ही कहीं मौजूद मिल जाते हैं. लेकिन, इनके बीच मेरी आंखें अक्सर उस सत्यप्रिय आचार्य को ढूंढती हैं, जिससे मैं बरसों पहले हृषिकेष'दा की सत्यकाम नाम की फिल्म में मिला था. सच कहूँ तो ये तलाश भी अधूरी ही खत्म हो गई थी, लेकिन इसी रविवार को दूरदर्शन पर फिर से इस फिल्म के प्रसारण ने मेरे मन के इस सवाल को फिर से जिंदा कर दिया है कि क्या सत्यकाम वास्तव में संभव है?


सत्यकाम कहानी है, एक ऐसे आदर्शवादी, सत्यनिष्ठ और ईमानदार इंजीनियर की, जो सच की राह पर चलना अपना धर्म मानता है. यह जानते हुए भी ‘सच्चाई हाथ पर रखे उस अंगारे की तरह है, जो जलाए नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता’, उसका यह भी मानना है कि इंसान फौलाद से ज्यादा मजबूत होता है. लेकिन सत्यप्रिय का सच सिर्फ यही नहीं है. उसके हर सच को हम दो तरह से देखते हैं, एक दर्शक की नजर से और दूसरा, उसके अभिन्न मित्र नरेन की नजर से, जो शायद सत्यप्रिय को सबसे ज्यादा जानता है, और सूत्रधार बनकर दर्शकों को उसके चरित्र के ऐसे पहलुओं से अवगत कराता हुआ चलता है, जो पर्दे पर नजर नहीं आ सकते थे. 

सत्यप्रिय अपने उसूलो को लेकर भारी कठिनाईयों का अनुभव करता है, कहीं भी लंबे समय तक वह नौकरी नहीं कर पाता. कभी वह अपने कर्तव्य को लेकर दूसरों से झगड़ा मोल लेता है तो कभी मजलूमों को उनका हक दिलाने को लेकर. इसके लिए वह अपनी अधिकार सीमा तक पार करने से परहेज नहीं करता. बचपन से ही एक अनाथ के रूप में अपने दादा जी के हाथों पले-बढ़े सत्यप्रिय को अपने कुल की मर्यादाओं और दादाजी की भावनाओं का इतना ख्याल है कि एक वेश्या की पुत्री रंजना को पसंद करने और नए जमाने की सोच की नुमाइंदगी करने के बावजूद, वह रंजना को अपनी जिंदगी से दूर कर देता है, लेकन अगले दिन उसके साथ हुए कुंवर बहादुर के अत्याचार के बाद अपराधबोध से ग्रस्त होकर, कुल मर्यादा और दादा जी की नाराजगी की परवाह न करते हुए वह उसे अपनी पत्नी बना लेता है, ताकि उसे फिर से किसी कुंवर बहादुर की वासना का शिकार न बनना पड़े. कुंवर के बच्चे को वह अपना बच्चा मानकर पालता है और कभी रंजना या बच्चे को एहसास नहीं होने देता कि इस बात को लेकर उसे कोई तंज है.

उसका यह कदम उसके दादा जी को उससे दूर कर देता है और ईमानदारी और  आदर्शों का जुनून हर किसी से...उसके दोस्त नरेन तक से, जो उसका वरिष्ठ बनकर उसके सामने आता है और उसे लचीलापन अपनाने की सलाह देता है और वह नहीं मानता.  ऐसे उसूल, जिनकी खातिर वह हर तकलीफ सहने के लिए तैयार है. ये उसूल धीरे-धीरे हाथ पर रखे अंगारे की तरह उसे जलाए जा रहे हैं, लेकिन उसे जलना कबूल है...अंतिम दिनों में जब वह राख का एक ऐसा ढेर बन चुका है, जिसमें चंद चिंगारियां बाकी बची हैं, रंजना के आक्रोश से फट पड़ने के बाद, हम ताजिंदगी किसी चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे सत्यप्रिय को कमजोर पड़ता हुआ देखते हैं और वह अपने उसूलों के विपरीत जाकर उस कागज पर हस्ताक्षर कर देता है, जो उसके परिवार की आने वाली जिंदगी को आसान कर सकता है, लेकिन ऐसे में रंजना सत्यप्रिय की ताकत बन जाती है और उस कागज को फाड़कर उसे हारने से बचा लेती है. सत्य से यह पूछने पर कि क्या उसे मालूम था कि रंजना ऐसा करेगी, मृत्युशैया पर पड़े सत्यप्रिय के होठों पर सहमति में उभरती क्षीण सी मुस्कान बता देती है कि उसे रंजना के इस कदम ने कितना सुख दिया है.

सत्यकाम के एक शुरुआती दृश्य में सत्यप्रिय मंत्री जी की बात पर नाराज होकर उनसे भी सख्ती से पेश आता है. रात के एकांत में वह आकर उसे कहते हैं कि जिस राह पर तुम चल रहे हो, उस पर तुम्हें दुःख मिलेंगे, दर्द मिलेगा...मैं कामना करता हूँ कि वे तुम्हें तुम्हारी राह से हटने न दें क्योंकि तुम्हारा यही दर्द देश की उम्मीद है.

बहरहाल, कैंसरग्रस्त सत्यप्रिय संसार से चला जाता है और अपने पीछे इसी उम्मीद के मरने का एहसास छोड़ जाता है. साथ ही छोड़ जाता है एक सवाल भी कि क्या सत्यप्रिय जैसे लोग इसी दुनिया में हो सकते हैं? निजी तौर पर मेरा यह मानना है कि सत्यप्रिय अनोखा हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं है. वह ऐसी उम्मीद है, जो बेशक हमें नजर नहीं आती, लेकिन उसका अस्तित्व है...आपका क्या ख्याल है?

संदीप अग्रवाल

Monday, December 1, 2014

जीवन के आकर्षण को तलाशती मृत्यु

किरदार हमेशा वही नहीं होता, जिसे आंखें देख सकें, कान सुन सकें या जिसे छुआ जा सके. कोई अनदेखा, अनसुना या अनुछुआ और एक अनजाना सा एहसास जब एक रोज आपके सामने आ खड़ा होता है तो जिंदगी जैसे एक नई दिशा में मुड़ जाती है.


अंग्रेजी फिल्म मीट जो ब्लैक (1998)  का मुख्य किरदार कोई मनुष्य नहीं, बल्कि मृत्यु है. यह मृत्यु कहीं नहीं है, लेकिन हर समय अपनी मौजूदगी और अपने वजूद का एहसास कराती है.

एक दिन अरबपति व्यवसायी विलियम पैरिश, जिसकी जिंदगी का हर पल व्यस्तता का पर्याय है, यह जानकर भौंचक्का रह जाता है कि मृत्यु उसे लेने आ पहुंची है. वह परेशान हो जाता है कि उसके काम कैसे पूरे होंगे, उन्हें पूरा करने के लिए वह मृत्यु से कुछ दिन की मोहलत मांगता है. मृत्यु इस बात पर हैरानी जाहिर करती है कि मनुष्य को जीवन से इतना लगाव क्यों है कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता. इस पर पैरिश मृत्यु से कहता है कि तुम मृत्यु हो, इसलिए तुम कभी नहीं जान सकतीं कि जीवन में क्या आकर्षण है. इस पर मृत्यु उसे तीस दिन का वक्त देती है और फैसला करती है कि वह इतने दिन उसके साथ रहकर जीवन के आकर्षण को जानने का प्रयास करेगी.

उसी समय एक दुर्घटना में मरे एक युवक के शरीर में प्रवेश कर मृत्यु पैरिश परिवार के साथ उनके घर में रहने लगती है. अब हमारे सामने जो शरीर है, वह उस युवक का है, लेकिन उसके चेहरे पर हम मृत्यु की अनुभूतियों को अभिव्यक्त होते देख सकते हैं.

पैरिश के परिवार में रहते हुए मृत्यु को तरह-तरह के अनुभव होते हैं. ऐसे अनुभव, जो अब तक उसके लिए एकदम अनजाने थे, ऐसे अनुभव, जिनमें सुर है, सौंदर्य है, सुगंध है, स्वाद है, स्पर्श है...ऐसे अनुभव, जो पांचों इंद्रियों को सार्थकता प्रदान करते हैं. और हम मृत्यु को इन अनुभवों से आह्लादित होते हुए देखते हैं. हम देखते हैं कि कैसे मृत्यु को उन सभी सुखों में एक खास किस्म के आकर्षण का बोध होने लगता है, कैसे वे चीजें उसे अपना आदी बनाने लगती हैं. ऐंद्रिक सुख के अतिरिक्त एक नई चीज, जिसका मृत्यु को एहसास होता है, वह है स्नेह, लगाव और प्रेम की मिश्रित अनुभूतियां. 

परिवार के एक सदस्य के रूप में, उन लोगों के साथ रहते-रहते वह कब भावनात्मक स्तर पर उनसे जुड़ जाती है. उसे खुद पता नहीं चलता. पैरिश की युवा बेटी सूसन के प्रेम में उसे जीवन के एक अलग आकर्षण का अनुभव होता है. इस तरह तीस दिन बीतते-बीतते मृत्यु को पता चल जाता है कि इंसान को जिंदगी से इतना  लगाव क्यों है और स्थिति यहां तक पहुंच जाती है कि जब उनके जाने का दिन आता  है तो मृत्यु को यह सब छोड़ने की कतई इच्छा नहीं होती. फिर उसे याद आता है कि वह कौन है, क्या है और क्यों है, उसका क्या कर्तव्य है, और कैसे उसके कारण जीवन-मरण का सम्पूर्ण चक्र बाधित हो रहा है. और तब वह अपनी समस्त भावनाओं पर विजय पाकर पैरिश को अपने साथ लेकर चली जाती है.

मृत्यु की विवशता, चीजों के प्रति अनभिज्ञता से उपजी मासूमियत, नई-नई प्राप्तियों के आनंद...इन सबको ब्रैड पिट ने बड़े प्यारे ढंग से अभिव्यक्ति दी है. यह किरदार इतनी कुशलता से रचा गया है कि जीवन की खूबसूरती को तलाशती मौत, अनजाने में ही हमें मौत की खूबसूरती से परिचित करा जाती है.
 ( यह लेख वर्ष 2002 में लोकमत समाचार के सिने परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था.)

संदीप अग्रवाल