Monday, December 1, 2014

जीवन के आकर्षण को तलाशती मृत्यु

किरदार हमेशा वही नहीं होता, जिसे आंखें देख सकें, कान सुन सकें या जिसे छुआ जा सके. कोई अनदेखा, अनसुना या अनुछुआ और एक अनजाना सा एहसास जब एक रोज आपके सामने आ खड़ा होता है तो जिंदगी जैसे एक नई दिशा में मुड़ जाती है.


अंग्रेजी फिल्म मीट जो ब्लैक (1998)  का मुख्य किरदार कोई मनुष्य नहीं, बल्कि मृत्यु है. यह मृत्यु कहीं नहीं है, लेकिन हर समय अपनी मौजूदगी और अपने वजूद का एहसास कराती है.

एक दिन अरबपति व्यवसायी विलियम पैरिश, जिसकी जिंदगी का हर पल व्यस्तता का पर्याय है, यह जानकर भौंचक्का रह जाता है कि मृत्यु उसे लेने आ पहुंची है. वह परेशान हो जाता है कि उसके काम कैसे पूरे होंगे, उन्हें पूरा करने के लिए वह मृत्यु से कुछ दिन की मोहलत मांगता है. मृत्यु इस बात पर हैरानी जाहिर करती है कि मनुष्य को जीवन से इतना लगाव क्यों है कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता. इस पर पैरिश मृत्यु से कहता है कि तुम मृत्यु हो, इसलिए तुम कभी नहीं जान सकतीं कि जीवन में क्या आकर्षण है. इस पर मृत्यु उसे तीस दिन का वक्त देती है और फैसला करती है कि वह इतने दिन उसके साथ रहकर जीवन के आकर्षण को जानने का प्रयास करेगी.

उसी समय एक दुर्घटना में मरे एक युवक के शरीर में प्रवेश कर मृत्यु पैरिश परिवार के साथ उनके घर में रहने लगती है. अब हमारे सामने जो शरीर है, वह उस युवक का है, लेकिन उसके चेहरे पर हम मृत्यु की अनुभूतियों को अभिव्यक्त होते देख सकते हैं.

पैरिश के परिवार में रहते हुए मृत्यु को तरह-तरह के अनुभव होते हैं. ऐसे अनुभव, जो अब तक उसके लिए एकदम अनजाने थे, ऐसे अनुभव, जिनमें सुर है, सौंदर्य है, सुगंध है, स्वाद है, स्पर्श है...ऐसे अनुभव, जो पांचों इंद्रियों को सार्थकता प्रदान करते हैं. और हम मृत्यु को इन अनुभवों से आह्लादित होते हुए देखते हैं. हम देखते हैं कि कैसे मृत्यु को उन सभी सुखों में एक खास किस्म के आकर्षण का बोध होने लगता है, कैसे वे चीजें उसे अपना आदी बनाने लगती हैं. ऐंद्रिक सुख के अतिरिक्त एक नई चीज, जिसका मृत्यु को एहसास होता है, वह है स्नेह, लगाव और प्रेम की मिश्रित अनुभूतियां. 

परिवार के एक सदस्य के रूप में, उन लोगों के साथ रहते-रहते वह कब भावनात्मक स्तर पर उनसे जुड़ जाती है. उसे खुद पता नहीं चलता. पैरिश की युवा बेटी सूसन के प्रेम में उसे जीवन के एक अलग आकर्षण का अनुभव होता है. इस तरह तीस दिन बीतते-बीतते मृत्यु को पता चल जाता है कि इंसान को जिंदगी से इतना  लगाव क्यों है और स्थिति यहां तक पहुंच जाती है कि जब उनके जाने का दिन आता  है तो मृत्यु को यह सब छोड़ने की कतई इच्छा नहीं होती. फिर उसे याद आता है कि वह कौन है, क्या है और क्यों है, उसका क्या कर्तव्य है, और कैसे उसके कारण जीवन-मरण का सम्पूर्ण चक्र बाधित हो रहा है. और तब वह अपनी समस्त भावनाओं पर विजय पाकर पैरिश को अपने साथ लेकर चली जाती है.

मृत्यु की विवशता, चीजों के प्रति अनभिज्ञता से उपजी मासूमियत, नई-नई प्राप्तियों के आनंद...इन सबको ब्रैड पिट ने बड़े प्यारे ढंग से अभिव्यक्ति दी है. यह किरदार इतनी कुशलता से रचा गया है कि जीवन की खूबसूरती को तलाशती मौत, अनजाने में ही हमें मौत की खूबसूरती से परिचित करा जाती है.
 ( यह लेख वर्ष 2002 में लोकमत समाचार के सिने परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था.)

संदीप अग्रवाल

No comments: