Monday, December 8, 2014

क्या सत्यकाम संभव है?

अक्सर हम ऐसे किरदारों से दो चार होते हैं, जो हमें अपने आसपास ही कहीं मौजूद मिल जाते हैं. लेकिन, इनके बीच मेरी आंखें अक्सर उस सत्यप्रिय आचार्य को ढूंढती हैं, जिससे मैं बरसों पहले हृषिकेष'दा की सत्यकाम नाम की फिल्म में मिला था. सच कहूँ तो ये तलाश भी अधूरी ही खत्म हो गई थी, लेकिन इसी रविवार को दूरदर्शन पर फिर से इस फिल्म के प्रसारण ने मेरे मन के इस सवाल को फिर से जिंदा कर दिया है कि क्या सत्यकाम वास्तव में संभव है?


सत्यकाम कहानी है, एक ऐसे आदर्शवादी, सत्यनिष्ठ और ईमानदार इंजीनियर की, जो सच की राह पर चलना अपना धर्म मानता है. यह जानते हुए भी ‘सच्चाई हाथ पर रखे उस अंगारे की तरह है, जो जलाए नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता’, उसका यह भी मानना है कि इंसान फौलाद से ज्यादा मजबूत होता है. लेकिन सत्यप्रिय का सच सिर्फ यही नहीं है. उसके हर सच को हम दो तरह से देखते हैं, एक दर्शक की नजर से और दूसरा, उसके अभिन्न मित्र नरेन की नजर से, जो शायद सत्यप्रिय को सबसे ज्यादा जानता है, और सूत्रधार बनकर दर्शकों को उसके चरित्र के ऐसे पहलुओं से अवगत कराता हुआ चलता है, जो पर्दे पर नजर नहीं आ सकते थे. 

सत्यप्रिय अपने उसूलो को लेकर भारी कठिनाईयों का अनुभव करता है, कहीं भी लंबे समय तक वह नौकरी नहीं कर पाता. कभी वह अपने कर्तव्य को लेकर दूसरों से झगड़ा मोल लेता है तो कभी मजलूमों को उनका हक दिलाने को लेकर. इसके लिए वह अपनी अधिकार सीमा तक पार करने से परहेज नहीं करता. बचपन से ही एक अनाथ के रूप में अपने दादा जी के हाथों पले-बढ़े सत्यप्रिय को अपने कुल की मर्यादाओं और दादाजी की भावनाओं का इतना ख्याल है कि एक वेश्या की पुत्री रंजना को पसंद करने और नए जमाने की सोच की नुमाइंदगी करने के बावजूद, वह रंजना को अपनी जिंदगी से दूर कर देता है, लेकन अगले दिन उसके साथ हुए कुंवर बहादुर के अत्याचार के बाद अपराधबोध से ग्रस्त होकर, कुल मर्यादा और दादा जी की नाराजगी की परवाह न करते हुए वह उसे अपनी पत्नी बना लेता है, ताकि उसे फिर से किसी कुंवर बहादुर की वासना का शिकार न बनना पड़े. कुंवर के बच्चे को वह अपना बच्चा मानकर पालता है और कभी रंजना या बच्चे को एहसास नहीं होने देता कि इस बात को लेकर उसे कोई तंज है.

उसका यह कदम उसके दादा जी को उससे दूर कर देता है और ईमानदारी और  आदर्शों का जुनून हर किसी से...उसके दोस्त नरेन तक से, जो उसका वरिष्ठ बनकर उसके सामने आता है और उसे लचीलापन अपनाने की सलाह देता है और वह नहीं मानता.  ऐसे उसूल, जिनकी खातिर वह हर तकलीफ सहने के लिए तैयार है. ये उसूल धीरे-धीरे हाथ पर रखे अंगारे की तरह उसे जलाए जा रहे हैं, लेकिन उसे जलना कबूल है...अंतिम दिनों में जब वह राख का एक ऐसा ढेर बन चुका है, जिसमें चंद चिंगारियां बाकी बची हैं, रंजना के आक्रोश से फट पड़ने के बाद, हम ताजिंदगी किसी चट्टान की तरह अडिग खड़े रहे सत्यप्रिय को कमजोर पड़ता हुआ देखते हैं और वह अपने उसूलों के विपरीत जाकर उस कागज पर हस्ताक्षर कर देता है, जो उसके परिवार की आने वाली जिंदगी को आसान कर सकता है, लेकिन ऐसे में रंजना सत्यप्रिय की ताकत बन जाती है और उस कागज को फाड़कर उसे हारने से बचा लेती है. सत्य से यह पूछने पर कि क्या उसे मालूम था कि रंजना ऐसा करेगी, मृत्युशैया पर पड़े सत्यप्रिय के होठों पर सहमति में उभरती क्षीण सी मुस्कान बता देती है कि उसे रंजना के इस कदम ने कितना सुख दिया है.

सत्यकाम के एक शुरुआती दृश्य में सत्यप्रिय मंत्री जी की बात पर नाराज होकर उनसे भी सख्ती से पेश आता है. रात के एकांत में वह आकर उसे कहते हैं कि जिस राह पर तुम चल रहे हो, उस पर तुम्हें दुःख मिलेंगे, दर्द मिलेगा...मैं कामना करता हूँ कि वे तुम्हें तुम्हारी राह से हटने न दें क्योंकि तुम्हारा यही दर्द देश की उम्मीद है.

बहरहाल, कैंसरग्रस्त सत्यप्रिय संसार से चला जाता है और अपने पीछे इसी उम्मीद के मरने का एहसास छोड़ जाता है. साथ ही छोड़ जाता है एक सवाल भी कि क्या सत्यप्रिय जैसे लोग इसी दुनिया में हो सकते हैं? निजी तौर पर मेरा यह मानना है कि सत्यप्रिय अनोखा हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं है. वह ऐसी उम्मीद है, जो बेशक हमें नजर नहीं आती, लेकिन उसका अस्तित्व है...आपका क्या ख्याल है?

संदीप अग्रवाल

No comments: