अधिकतर हिंदी फिल्मों में जज की भूमिका, अगर वह नायक न हो तो, बहुत ही संक्षिप्त होती है, जो अदालत की कार्रवाई शुरू होने से लेकर फैसला दिए जाने के बीच ही सिमटकर रह जाती है.
लेकिन, पिछले साल आई जॉली एलएलबी के जस्टिस त्रिपाठी के अंदाज एकदम अलग ही नजर आते हैं. जस्टिस त्रिपाठी एकदम नारियल जैसे हैं, बाहर से सख्त और खुरदुरे, लेकिन भीतर से जज्बातों की मिठास से भरपूर.
यह एक ऐसा किरदार है, जो हर बीतते दिन एक नई ऊंचाई पाता चला जाता है. पहले दृश्य में युवा वकील जगदीश त्यागी की जनहित याचिका की गलतियों पर उसे फटकार लगाते और होमवर्क करके आने की सलाह देने वाले जस्टिस त्रिपाठी को जब हम दबंग और सेलिब्रिटी वकील राजपाल से उसके भाई की हाउसिंग स्कीम में फ्लैट के बारे में चर्चा करते देखते हैं तो स्वाभाविक ही उनके बारे में यह राय बन जाती है कि राजपाल के रसूख का असर उनके फैसले पर न पड़े, हो ही नहीं सकता. लेकिन, जब वे त्यागी की याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर लेते हैं, तो यह राय कुछ कमजोर पड़ने लगती है.
जस्टिस त्रिपाठी, सिर्फ एक जज की ही नहीं, बल्कि एक हितचिंतक बुजुर्ग की भूमिका भी अच्छे से निभाना जानते हैं. एक दृश्य में वह अदालत में दोनों वकीलों के अमर्यादित होने के बाद उन्हें लंच के दौरान बुलाकर समझाते हैं कि उन्हें इससे बचना चाहिए. और जब लालच में रास्ते से भटक गया त्यागी सच्चाई के लिए लड़ने का दम भरता है तो जस्टिस त्रिपाठी उसकी पोलपट्टी खोल देते हैं और कहते हैं कि कानून अंधा होता है, जज नहीं. कानून का रखवाला होने के नाते जज को उससे बड़ा मानने की उनकी यह भावना एक और दृश्य में तब सामने आती है, जब अदालत में उनके आने के बाद वकीलों के बैठे रहने पर वे कटाक्ष करते हैं कि आप लोग भी खड़े हो जाइए, कानून की इज्जत नहीं करते तो जज की तो इज्जत कीजिए.
एक जज होने के नाते जस्टिस त्रिपाठी द्वारा अपने अधिकार का उपयोग करने पर जब राजपाल द्वारा सवाल उठाया जाता है तो उसके सारे रसूख की परवाह किए बिना वह कह देते हैं कि यह राजपाल का बाररूम नहीं, बल्कि उनकी अदालत है, जहाँ कुछ भी करने का अधिकार सिर्फ उन्हें ही है. तेजपाल फिर भी नहीं मानता, तो भड़के जस्टिस त्रिपाठी उसे इतनी खरी-खोटी सुनाते हैं कि वह हक्का-बक्का रह जाता है...और दर्शक भी, जिन्हें लग रहा था कि एक फ्लैट या बंगले का लालच, जस्टिस त्रिपाठी को राजपाल के सामने कमजोर कर देगा.
जस्टिस त्रिपाठी जज होने के अधिकार को भी जानते हैं, और सीमाओं को भी. सीमाएं, जो उन्हें पहले दिन से ही सच जानने के बावजूद भी तथ्यों और साक्ष्यों की बिना पर ही फैसला देने के लिए विवश करती हैं. अंतिम दृश्य में उनकी यह पीड़ा फूट पड़ती है कि उनका जानना कोई मायने नहीं रखता, उन्हें तो वही बोलना है जो साक्ष्य कहते हैं. और फिर वे अपनी सीमाएं तोड़ डालते हैं और कहते हैं कि आज तक जज के तारीख दर तारीख सबूतों का इंतजार करते रहने की जो परंपरा है, वह अब नहीं होगी और मुजरिम राहुल दीवान जेल जाएगा. सबूतों की बैसाखी के सहारे चलने वाली सीमाएं तोड़ने का जस्टिस त्रिपाठी का यह फैसला उन्हें एकाएक बहुत ऊंचा उठा देता है.
जस्टिस त्रिपाठी के इस दिलचस्प किरदार को सौरभ शुक्ला ने इस शानदार ढंग से निभाया है कि लगता ही नहीं कि कोई और कलाकार इससे बेहतर निभा सकता था. प्रसंगवश, इस भूमिका के लिए सौरभ शुक्ला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है, न मिलता तो इस जज के साथ यह एक तरह की नाइंसाफी ही होती.
संदीप अग्रवाल
लेकिन, पिछले साल आई जॉली एलएलबी के जस्टिस त्रिपाठी के अंदाज एकदम अलग ही नजर आते हैं. जस्टिस त्रिपाठी एकदम नारियल जैसे हैं, बाहर से सख्त और खुरदुरे, लेकिन भीतर से जज्बातों की मिठास से भरपूर.
यह एक ऐसा किरदार है, जो हर बीतते दिन एक नई ऊंचाई पाता चला जाता है. पहले दृश्य में युवा वकील जगदीश त्यागी की जनहित याचिका की गलतियों पर उसे फटकार लगाते और होमवर्क करके आने की सलाह देने वाले जस्टिस त्रिपाठी को जब हम दबंग और सेलिब्रिटी वकील राजपाल से उसके भाई की हाउसिंग स्कीम में फ्लैट के बारे में चर्चा करते देखते हैं तो स्वाभाविक ही उनके बारे में यह राय बन जाती है कि राजपाल के रसूख का असर उनके फैसले पर न पड़े, हो ही नहीं सकता. लेकिन, जब वे त्यागी की याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर लेते हैं, तो यह राय कुछ कमजोर पड़ने लगती है.
जस्टिस त्रिपाठी, सिर्फ एक जज की ही नहीं, बल्कि एक हितचिंतक बुजुर्ग की भूमिका भी अच्छे से निभाना जानते हैं. एक दृश्य में वह अदालत में दोनों वकीलों के अमर्यादित होने के बाद उन्हें लंच के दौरान बुलाकर समझाते हैं कि उन्हें इससे बचना चाहिए. और जब लालच में रास्ते से भटक गया त्यागी सच्चाई के लिए लड़ने का दम भरता है तो जस्टिस त्रिपाठी उसकी पोलपट्टी खोल देते हैं और कहते हैं कि कानून अंधा होता है, जज नहीं. कानून का रखवाला होने के नाते जज को उससे बड़ा मानने की उनकी यह भावना एक और दृश्य में तब सामने आती है, जब अदालत में उनके आने के बाद वकीलों के बैठे रहने पर वे कटाक्ष करते हैं कि आप लोग भी खड़े हो जाइए, कानून की इज्जत नहीं करते तो जज की तो इज्जत कीजिए.
एक जज होने के नाते जस्टिस त्रिपाठी द्वारा अपने अधिकार का उपयोग करने पर जब राजपाल द्वारा सवाल उठाया जाता है तो उसके सारे रसूख की परवाह किए बिना वह कह देते हैं कि यह राजपाल का बाररूम नहीं, बल्कि उनकी अदालत है, जहाँ कुछ भी करने का अधिकार सिर्फ उन्हें ही है. तेजपाल फिर भी नहीं मानता, तो भड़के जस्टिस त्रिपाठी उसे इतनी खरी-खोटी सुनाते हैं कि वह हक्का-बक्का रह जाता है...और दर्शक भी, जिन्हें लग रहा था कि एक फ्लैट या बंगले का लालच, जस्टिस त्रिपाठी को राजपाल के सामने कमजोर कर देगा.
जस्टिस त्रिपाठी जज होने के अधिकार को भी जानते हैं, और सीमाओं को भी. सीमाएं, जो उन्हें पहले दिन से ही सच जानने के बावजूद भी तथ्यों और साक्ष्यों की बिना पर ही फैसला देने के लिए विवश करती हैं. अंतिम दृश्य में उनकी यह पीड़ा फूट पड़ती है कि उनका जानना कोई मायने नहीं रखता, उन्हें तो वही बोलना है जो साक्ष्य कहते हैं. और फिर वे अपनी सीमाएं तोड़ डालते हैं और कहते हैं कि आज तक जज के तारीख दर तारीख सबूतों का इंतजार करते रहने की जो परंपरा है, वह अब नहीं होगी और मुजरिम राहुल दीवान जेल जाएगा. सबूतों की बैसाखी के सहारे चलने वाली सीमाएं तोड़ने का जस्टिस त्रिपाठी का यह फैसला उन्हें एकाएक बहुत ऊंचा उठा देता है.
जस्टिस त्रिपाठी के इस दिलचस्प किरदार को सौरभ शुक्ला ने इस शानदार ढंग से निभाया है कि लगता ही नहीं कि कोई और कलाकार इससे बेहतर निभा सकता था. प्रसंगवश, इस भूमिका के लिए सौरभ शुक्ला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है, न मिलता तो इस जज के साथ यह एक तरह की नाइंसाफी ही होती.
संदीप अग्रवाल